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सांविधानिक विधि

संपत्ति का अधिकार

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 12-Nov-2024

परिचय 

संपत्ति का अधिकार वर्तमान में भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 300A के तहत संरक्षित है।

  • इसमें केवल इतना कहा गया है कि “कि कानून के अधिकार के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा।”
  • यह अब मौलिक अधिकार नहीं बल्कि संवैधानिक अधिकार है।

संपत्ति अधिकारों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

  • प्रारंभिक संवैधानिक ढाँचे में तीन स्तरीय सुरक्षा थी: 
    • अनुच्छेद 19(1)(f): नागरिकों को संपत्ति अर्जित करने, रखने और बेचने का अधिकार दिया गया।
    • अनुच्छेद 31(1): मनमाने तरीके से वंचित करने से सुरक्षा।
    • अनुच्छेद 31(2): अधिग्रहण के लिये आवश्यक मुआवज़ा।
  • उचित प्रतिबंधों की अनुमति दी गई:
    • जन कल्याण के लिये। 
    • अनुसूचित जनजातियों के हितों की रक्षा के लिये। 
    • तर्कसंगतता की परीक्षा पास करनी पड़ी।
  • राज्य की शक्तियाँ निम्नलिखित द्वारा सीमित थीं:
    • सार्वजनिक उद्देश्य दर्शाने की आवश्यकता।
    • मुआवज़ा (प्रतिकर) देने की आवश्यकता।
    • अधिग्रहण प्रक्रिया की न्यायिक समीक्षा।

संपत्ति अधिकारों का विकास

  • पहला संशोधन (1951): 
    • इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 31A जोड़ा गया।
    • इसने कुछ कानूनों को चुनौती से भी संरक्षित किया। 
    • इस संशोधन से कृषि सुधार संभव हो सके।
  • चौथा संशोधन (1955):
    • यह मुआवज़े की सीमित न्यायिक समीक्षा है।
    • इससे मुआवज़े की पर्याप्तता न्यायोचित नहीं रह गई।
  • पच्चीसवाँ संशोधन (1971):
    • इस संशोधन ने 'मुआवज़े' को 'राशि' के रूप में परिवर्तित कर दिया।
    • इस संशोधन ने संपत्ति के अधिकारों को और अधिक सीमित कर दिया।
  • चालीसवाँ संशोधन (1978):
    • इस संशोधन ने संपत्ति को मूल अधिकारों की सूची से बाहर कर दिया।
    • इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 300A जोड़ा गया।
    • इस संशोधन ने संपत्ति अधिकारों के संपूर्ण ढाँचे को बदल दिया। 

44वाँ संविधान संशोधन

  • 44वें संशोधन में भाग III के अनुच्छेद 19(1)(f) से संपत्ति के अधिकार को हटाने और अनुच्छेद 300-A के भीतर संवैधानिक अधिकार के रूप में इसे फिर से शामिल करने का प्रावधान था। इसके अतिरिक्त, अनुच्छेद 31, जो मुआवज़ा निर्धारण के संबंध में महत्त्वपूर्ण विवाद का विषय रहा था, को भी हटा दिया गया।
  • केशवानंद भारती मामले में असहमति जताने वाले न्यायाधीश न्यायमूर्ति के.के.मैथ्यू ने कहा कि संपत्ति के स्वामित्व का सभ्यता की गुणवत्ता एवं संस्कृति के साथ प्रत्यक्ष संबंध है।
  • उन्होंने मूल संरचना सिद्धांत के ढाँचे के भीतर भी, संवैधानिक आधार की सूची से संपत्ति के स्वामित्व और अधिग्रहण के मौलिक अधिकार को बाहर रखने के विरुद्ध तर्क दिया।
  • वर्ष 1980 में एक प्रोफेसर ने एक प्रभावशाली प्रकाशन में यह दावा किया कि अनुच्छेद 31 को हटाना एक गलत कदम था।
  • उन्होंने तर्क दिया कि समवर्ती सूची की प्रविष्टि 42 द्वारा प्रदत्त शक्ति “ज़ब्ती” के बजाय “अधिग्रहण” से संबंधित है।
  • प्रोफेसर ने कहा कि अनुच्छेद 31(2) के अंतर्गत केवल सार्वजनिक उद्देश्यों के लिये अधिग्रहण और उसके साथ मुआवज़े की शर्तों को स्पष्ट रूप से शामिल करने से उन्हें अनुदान का अंतर्निहित पहलू मानने की आवश्यकता समाप्त हो गई।
  • अनुच्छेद 300A यह निर्धारित करता है कि सिवाय कानूनी प्राधिकार द्वारा, किसी भी व्यक्ति को उनके संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा।
  • प्रोफेसर के अनुसार इसका अर्थ यह है कि "कानून" को तब तक वैध नहीं माना जा सकता जब तक कि अधिग्रहण या अधिग्रहण सार्वजनिक उद्देश्य की पूर्ति न करता हो तथा इसमें मुआवज़े का प्रावधान शामिल न हो।
  • उन्होंने यह स्पष्ट किया कि "मुआवज़े" की व्याख्या बेला बनर्जी मामले में निर्धारित परिभाषा के अनुसार ही रहेगी, जिसका अर्थ संपत्ति के अधिग्रहण के समय के आसपास के बाज़ार मूल्य से है।
  • अनुच्छेद 19(1)(f) और 31 के उन्मूलन के बाद के वर्षों में उच्चतम न्यायालय ने ज़ोर देकर कहा है कि संपत्ति का अधिकार एक संवैधानिक एवं  मानव अधिकार दोनों है।
  • एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ (1986) में न्यायालय ने कहा कि किसी कानून के वैध होने के लिये उसे न्यायसंगत, निष्पक्ष और उचित होना चाहिये। इसलिये मौलिक अधिकार के रूप में वर्गीकृत न होने के बावजूद, किसी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित करने वाले किसी भी कानून को अनुच्छेद 14, 19 तथा 21 के आदेशों का पालन करना चाहिये।
  • बी.के. रविचंद्र बनाम भारत संघ (2020) में न्यायालय ने अनुच्छेद 300A तथा अनुच्छेद 21 और 265 के वाक्यांशों के बीच उल्लेखनीय समानता पर ज़ोर दिया।
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 300A में निहित गारंटी को कमज़ोर नहीं किया जा सकता।

भारत में संपत्ति अधिकारों का वर्तमान कानूनी ढाँचा

  • संपत्ति निम्नलिखित तरीकों से अर्जित की जा सकती है:  
    • केंद्र सरकार के कानून द्वारा 
    • राज्य सरकार के कानून द्वारा 
    • कानूनी समर्थन वाले किसी भी वैधानिक प्राधिकरण द्वारा 
  • संपत्ति अर्जित करने की आवश्यकताएँ: 
    • कानूनी अधिकार होना चाहिये
    • सार्वजनिक उद्देश्य की आवश्यकता नहीं
    • कोई अनिवार्य मुआवज़े आवश्यकता नहीं 
  • सीमाएँ:
    • कार्यकारी आदेशों के माध्यम से नहीं किया जा सकता। 
    • कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया का पालन करना। 
    • अन्य संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन नहीं करना चाहिये।

संपत्ति के अधिकार की रक्षा के लिये उपलब्ध कानूनी उपाय 

  • यदि संपत्ति कानूनी अधिकार के बिना ली जाती है, तो अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है।
  • अनुच्छेद 32 के तहत सीधे उच्चतम न्यायालय में अपील नहीं की जा सकती (जैसा कि पहले संभव था)।
  • अपर्याप्त मुआवज़े के आधार पर अधिग्रहण को चुनौती नहीं दी जा सकती।

ऐतिहासिक मामले

  • ए. के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950): 
    • मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा सुना गया यह मामला उन प्रारंभिक उदाहरणों में से एक था, जहाँ न्यायालय को संपत्ति के अधिकार और इसे विनियमित करने की राज्य की शक्ति के बीच संघर्ष करना पड़ा। 
    • न्यायालय ने मद्रास सार्वजनिक व्यवस्था रखरखाव अधिनियम, 1949 की संवैधानिकता को बरकरार रखा, जो राज्य को सार्वजनिक व्यवस्था के लिये किसी भी संपत्ति पर कब्ज़ा करने के लिये अधिकृत करता है।
  • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973):
    • इस मामले को अक्सर "मूल संरचना सिद्धांत" मामले के रूप में संदर्भित किया जाता है।
    • हालाँकि यह प्रत्यक्ष रूप से संपत्ति के अधिकार से संबंधित नहीं है, लेकिन संवैधानिक संदर्भ को समझने में यह महत्त्वपूर्ण है।
    • उच्चतम न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय में कहा कि संसद के पास संविधान में संशोधन करने की शक्ति है, लेकिन वह इसके मूल ढाँचे को नहीं बदल सकती।
    • इस मामले ने अप्रत्यक्ष रूप से बाद के संशोधन को प्रभावित किया जिसने संपत्ति के अधिकार को कानूनी अधिकार में बदल दिया।
  • मिनर्वा मिल्स लिमिटेड बनाम भारत संघ (1980):
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के कुछ भाग को रद्द कर दिया, जो संसद को संविधान में संशोधन करने की असीमित शक्ति प्रदान करता था।
    • संपत्ति के मौलिक अधिकार को समाप्त करने वाले संशोधन को बरकरार रखते हुए, न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि भले ही संपत्ति का अधिकार अब मौलिक अधिकार नहीं है, लेकिन यह संवैधानिक अधिकार बना हुआ है।
  • जिलुभाई नानभाई खाचर बनाम गुजरात राज्य (1995): 
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि संपत्ति का अधिकार संविधान के मूल ढाँचे के सिद्धांत का हिस्सा नहीं है।

निष्कर्ष

भारत में संपत्ति का अधिकार समय के साथ काफी कमज़ोर हो गया है। वर्तमान सुरक्षा संपत्ति अधिग्रहण के लिये कानूनी अधिकार की आवश्यकता तक सीमित है। व्यक्तिगत संपत्ति अधिकारों से ध्यान हटाकर सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों पर केंद्रित कर दिया गया है। यह परिवर्तन राज्य को संपत्ति के मामलों में अधिक शक्ति देने की दिशा में बदलाव को दर्शाता है। भारत में संपत्ति अधिकारों का यह परिवर्तन मज़बूत व्यक्तिगत संपत्ति सुरक्षा से लेकर अधिक राज्य-नियंत्रित दृष्टिकोण की ओर एक महत्त्वपूर्ण बदलाव को दर्शाता है, जिसमें व्यक्तिगत संपत्ति अधिकारों पर सामाजिक और आर्थिक विकास को प्राथमिकता दी जाती है।